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Author(s):
डा. प्रमोद कुमार सहनी. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
1-6 | 
महादेवी वर्मा की कविता में स्त्री चेतना और सामाजिक परिप्रेक्ष्य
Abstract
महादेवी वर्मा आधुनिक हिंदी साहित्य के छायावादी युग की एक प्रमुख स्तंभ थी, जिनकी काव्य रचनाएँ न केवल उनकी कालजयी साहित्यिक प्रतिभा को बताती है, बल्कि समाज और स्त्री के प्रति उनकी गहरी संवेदनशीलता और समझ का परिचय भी देती है। इनके साहित्य उनके व्यक्तिगत अनुभवो, संवेदनाओ और गहन अध्यात्मिक दृष्टिकोण का प्रतिफल है। उन्हांेने न केवल छायावादी साहित्य को नई ऊँचाईयों तक पहुँचाया, बल्कि अपने साहित्य के माध्यम से स्त्री के भीतर सुलगते हुए संघर्ष, वेदना ओर उसकी स्वतंत्रता की अकांक्षा को भी सामने रखा। महादेवी जी के समय का भारतीय समाज पितृसŸाात्मक विचारधारा से संचालित था, जहाँ स्त्री को मुख्यतः घर और परिवार तक सीमित माना और रखा जाता था। इस सामाजिक व्यवस्था में स्त्री के अधिकारों ओर स्वतंत्रता के बारे में सोचना भी एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। ऐसे समय में महादेवी ने अपने कविताओं और गद्य रचनाओ के द्वारा स्त्री के मानसिक और सामाजिक संघर्षो को अभिव्यक्ति दी और उसके अधिकारों के लिए आवाज बुलंद की।
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Author(s):
डॉ. प्रदीप कुमार. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
7-17 | 
भक्तिकालीन काव्यचिंतन के परिप्रेक्ष्य में कबीर एवं तुलसी का काव्य
Abstract
भक्ति आंदोलन का उभार उत्तर भारत में तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक दिखाई पड़ता है। इसके पहले दक्षिण भारत में छठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक भक्ति आंदोलन आध्यात्मिक-धार्मिक मान्यताओं का केंद्र रहा चुका था। भक्तिकाव्य का स्वाभाविक विकास शास्त्र से लोकोन्मुखी  जीवन की ओर रहा है। वृहत् स्वरूप में अवलोकन करने पर पता चलता है कि भक्तिदर्शन के मूल में शास्त्रीय भाषा संस्कृत में निबद्ध धार्मिक व आध्यात्मिक मान्यताएँ थी। जिसके प्रणेता शंकर, यामुन, रामानुज, रामानंद,वल्लभ, माध्व व विष्णुस्वामी इत्यादि आचार्य थे। इन आध्यात्मिक आचार्यों की शिष्य परंपरा में कबीर, नानक, रैदास, दादू, तुलसी,सूर, नंददास आदि लोकधर्मी भक्तकवि हुए । भक्तकवि शास्त्र से इतर लोक को अपनी रचनाचिंता के केन्द्र में रखते हैं। इन्होंने लोकबोली में लोकचिंता का महत्  आख्यान रचा है। काव्यशास्त्रीय चिंतन के परिप्रेक्ष्य में भक्तिकाव्य का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि सूर,नंददास,ध्रुवदास आदि कवियों ने रस, ध्वनि, अलंकार, गुण-दोष,नायिकाभेद का विवेचन कतिपय अंशों में किया है। तुलसीकाव्य में काव्यांग का सिद्धहस्त प्रयोग दिखाई पड़ता है। कबीरकाव्य में शास्त्रीय संदर्भों के प्रयोग के विषय में हिंदी आलोचना जगत व्यापक असहमतियों की तीखी बहस का साक्षी रहा है। इन आलोचकीय मान्यताओं के इतर रचनाकेंद्रित पाठ के आग्रह पर कबीर व तुलसी के काव्य में काव्यशास्त्रीय चिंतन की क्रमशः लोक व शास्त्रीय प्रणाली का सुस्पष्ट निर्वहन देखा जा सकता है।
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Author(s):
प्रवीण कुमार दुबे. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
18-22 | 
कमलेश्वर की कहानियो में सामाजिक चेतना : विशेष अध्ययन
Abstract
कमलेश्वर भारतीय साहित्य के एक प्रमुख कथाकार थे, जिन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से समाज के विविध पक्षों को उद्घाटित किया। उनकी कहानियाँ सामाजिक विषमताओं, वर्ग संघर्ष, और मानवीय संवेदनाओं को उभारने का महत्वपूर्ण कार्य करती हैं। उनकी कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि वे समकालीन समाज की उन समस्याओं को उजागर करती हैं जो आज भी हमारे समाज में विद्यमान हैं। उनका लेखन समाज को उसकी सीमाओं, समस्याओं, और संभावनाओं से अवगत कराता है और साथ ही समाज को सुधार की दिशा में सोचने पर विवश करता है। कमलेश्वर ने अपने साहित्यिक सफर में न केवल कहानियाँ, बल्कि उपन्यास, निबंध और फिल्म पटकथाएँ भी लिखीं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति गहरी संवेदनशीलता और बदलाव की आकांक्षा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उन्होंने अपने पात्रों के माध्यम से समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, गरीबी, असमानता और संघर्ष को उजागर किया। उनकी रचनाओं में एक सामान्य व्यक्ति की जीवन की कठिनाइयाँ और संघर्ष को मानवीय दृष्टिकोण से देखा गया है, जो उन्हें हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण साहित्यकार बनाता है।
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Author(s):
अखिलेश जोशी. 
Country: 
Research Area:
शिक्षा शास्त्र 
Page No:
23-28 | 
जनजाति क्षेत्र के विद्यार्थियों की संस्कृत भाषा के प्रति अभिवृत्ति का शैक्षिक उपलब्धि पर प्रभाव का अध्ययन
Abstract
प्रस्तुत शोध में जनजाति क्षेत्र के विद्यार्थियों की संस्कृत भाषा के प्रति अभिवृत्ति का शैक्षिक उपलब्धि पर प्रभाव का अध्ययन का अध्ययन ंिकया गया है। प्रस्तुत शोध अध्ययन के ंिलए शोधार्थी द्वारा राजस्थान के जनजातीय क्षेत्र के उच्च माध्यमिक विद्यालयों में अध्ययनरत कक्षा 9 वीं एवं 10 वी के 150 विद्यार्थियों का चयन न्यादर्श के रूप में किया गया। इस शोध कार्य में सर्वेक्षण ंिवंिध का प्रयोग ंिकया गया। प्रदत्तों के संकलन के ंिलये शोध में शोधार्थी ने संस्कृत भाषा के प्रति अभिवृत्ति  एवं शैक्षिक उपलब्धि के लिये स्वनिर्मित उपकरण का प्रयोग किया गया। शोध पंिरणामों से प्राप्त हुआ कि जनजाति क्षेत्र के विद्यार्थियों की संस्कृत भाषा के प्रति अभिवृत्ति  में सार्थक रूप से अंतर पाया गया। जनजाति क्षेत्र के विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि में सार्थक रूप से अंतर पाया गया।
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Author(s):
हर्ष. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
29-35 | 
श्री अरविंद और भारतीय युवाओं का आत्मनिर्माण: शिक्षा, अध्यात्म और राष्ट्रवाद का त्रिकोण
Abstract
श्री अरविंद भारतीय इतिहास के एक अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तित्व थे, जिनका जीवन और शिक्षाएं भारतीय युवाओं के लिए अपार प्रेरणा का स्रोत हैं। वे एक दार्शनिक, योगी, कवि, और राष्ट्रवादी नेता के रूप में प्रसिद्ध हुए, और उनकी विरासत व्यक्तिगत और सामूहिक विकास के लिए गहन दिशा-निर्देश प्रदान करती है।
श्री अरविंद की शैक्षिक दृष्टि अत्यंत महत्वपूर्ण और समग्र थी। उन्होंने एक ऐसी शिक्षा प्रणाली की वकालत की, जो केवल जानकारी देने तक सीमित न हो, बल्कि संपूर्ण मानव के पोषण पर जोर दे। उन्होंने आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता और नैतिक मूल्यों के विकास पर बल दिया, ताकि छात्र केवल विद्वान ही न बनें, बल्कि बुद्धिमान और दयालु नागरिक भी बन सकें। उनका उद्देश्य शिक्षा को एक ऐसा साधन बनाना था, जो आत्मविकास के साथ-साथ समाज के प्रति जिम्मेदारी का भी पाठ पढ़ाए।
श्री अरविंद ने सांस्कृतिक गर्व और वैश्विक दृष्टिकोण के महत्व को भी उजागर किया। उन्होंने भारत की विशिष्ट आध्यात्मिक विरासत में विश्वास रखा और इसे वैश्विक सभ्यता में योगदान देने की क्षमता मानते थे। वे पूर्व की आध्यात्मिक बुद्धि और पश्चिम की वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के बीच एक सामंजस्य स्थापित करने का आह्वान करते थे। उनके अनुसार, युवा भारतीय अपनी सांस्कृतिक पहचान में मजबूत रहते हुए, विश्व के साथ जुड़ने में सक्षम हो सकते हैं।
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Author(s):
रेमीसा सी. यु.. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
36-40 | 
एम. टी. वासुदेवन नायर का रचनात्मक द्वैत: साहित्य और सिनेमा की संगति
Abstract
प्रत्येक समाज और प्रत्येक युग की अपनी एक आत्मा होती है—एक अंतर्धारा, जो उसके सामाजिक ताने-बाने, निवासियों की आकांक्षाओं और सामूहिक अवचेतन की गहराइयों से होकर बहती है। इस आत्मा को शब्द देने, उसे आकार प्रदान करने और उसे भविष्य की पीढ़ियों के लिए संरक्षित करने का गुरुतर दायित्व उस युग के महान लेखकों और कलाकारों पर होता है। वे न केवल अपने समय के संवेदनशील दृष्टा होते हैं, बल्कि मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री की भूमिका भी निभाते हैं।जब हम बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारतीय साहित्य के परिदृश्य पर दृष्टि डालते हैं, तो केरल की उर्वर भूमि से एक ऐसा नाम उभरता है, जो इन सभी भूमिकाओं का सफलतापूर्वक निर्वहन करता है—माडथ थेक्केपाट्टु वासुदेवन नायर, जिन्हें साहित्यिक जगत 'एम. टी.' के नाम से जानता है। एम. टी. एक ऐसे साहित्यिक पुरोधा हैं, जिनकी लेखनी ने न केवल मलयालम भाषा को नई ऊँचाइयाँ प्रदान कीं, बल्कि केरल के संक्रमणकालीन समाज के अंतर्मन का ऐसा जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया, जो अपनी क्षेत्रीय सीमाओं को लांघकर एक सार्वभौमिक मानवीय अनुभव में रूपांतरित हो गया। उनका कृतित्व एक विशाल वटवृक्ष की भाँति है, जिसकी जड़ें केरल की मिट्टी और मिथकों में गहराई तक धँसी हैं, और जिसकी शाखाएँ मानवीय अस्तित्व के जटिल प्रश्नों को छूने के लिए आकाश की ओर फैली हुई हैं।
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Author(s):
डॉ. भूपत राम. 
Country: 
Research Area:
सामाजिक अध्ययन 
Page No:
41-45 | 
समकालीन कला अभ्यास में अपशिष्ट पदार्थों का पुनर्चक्रण: एक स्थायी सौंदर्यशास्त्र
Abstract
समकालीन भारतीय कला में अपशिष्ट पदार्थों के पुनर्चक्रण की प्रवृत्ति, केवल एक पर्यावरणीय समाधान नहीं, बल्कि एक सशक्त सांस्कृतिक और सौंदर्यशास्त्रीय वक्तव्य बन चुकी है। यह प्रवृत्ति उस कलात्मक दृष्टिकोण को उजागर करती है, जिसमें कलाकार समाज द्वारा त्याज्य घोषित वस्तुओं — जैसे प्लास्टिक, धातु, पुरानी साड़ियाँ, बर्तन, खिलौने आदि — को रचनात्मक माध्यम बनाकर कला को वैचारिक गहराई प्रदान करते हैं। यह प्रक्रिया न केवल पर्यावरणीय चेतना को स्वर देती है, बल्कि वर्ग, श्रम, स्मृति, और लिंग आधारित अनुभवों को भी कलात्मक विमर्श में लाती है। सुबोध गुप्ता, भारती खेर, मंजरी शर्मा, हरेन्द्रनाथ, चिमन डांगी, निलेश कुमार सिद्धपुरा जैसे कलाकार और ग्रामीण महिला समूह इस प्रवृत्ति के सक्रिय वाहक हैं। उनकी कृतियों में पुनर्चक्रण सौंदर्यशास्त्र के साथ सामाजिक चेतना का समन्वय भी है। यह शोध इन कलाकारों की कृतियों का विश्लेषण प्रस्तुत करता है, तथा यह रेखांकित करता है कि पुनर्चक्रण अब केवल तकनीक नहीं, बल्कि एक उत्तरदायी कलात्मक दृष्टिकोण है।
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Author(s):
डॉ. आभा बाजपेयी, कपिल शर्मा. 
Country: 
Research Area:
राजनीति विज्ञान 
Page No:
46-51 | 
उत्तर प्रदेश की राजनीति में विपक्ष की भूमिका चौदहवीं विधानसभा से सत्रहवीं विधानसभा के विशेष संदर्भ में
Abstract
प्रस्तुत शोध में उत्तर प्रदेश की राजनीति में विपक्ष की भूमिका चौदहवीं विधानसभा से सत्रहवीं विधानसभा के विशेष संदर्भ में अध्ययन किया गया है। उत्तर प्रदेश राज्य लोकसभा और विधानसभा में सबसे अधिक सीटों के साथ सबसे अधिक आबादी वाला राज्य होने के कारण भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य भयंकर प्रतिस्पर्धा, वैचारिक टकराव और बदलती मतदाता निष्ठाओं से चिह्नित है। ऐसे गतिशील माहौल में, विपक्ष की भूमिका न केवल सत्तारूढ़ सरकार पर अंकुश लगाने के रूप में, बल्कि वैकल्पिक आवाजों और नीतियों के प्रतिनिधि के रूप में भी महत्वपूर्ण हो जाती है। 14वीं से 17वीं विधानसभा (2002-2022) तक का समय उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए परिवर्तनकारी था। इस युग में प्रारंभ में गठबंधन की राजनीति का उदय, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों का उदय, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पतन और भारतीय जनता पार्टी  का पुनरुत्थान देखा गया। इन वर्षों के दौरान विपक्ष ने सत्तारूढ़ दलों का मुकाबला करने के लिए विभिन्न रणनीतियाँ अपनाईं, लेकिन उनकी प्रभावशीलता में काफी भिन्नता थी। इस शोध पत्र का उद्देश्य इस अवधि के दौरान विपक्षी दलों द्वारा अपनाई गई राजनीतिक रणनीतियों का विश्लेषण करना, उनकी सफलताओं और विफलताओं पर ध्यान केंद्रित करना है। चुनावी नतीजों, विधायी प्रदर्शन और सार्वजनिक स्वागत की जांच करके, अध्ययन विपक्षी दलों के सामने आने वाली चुनौतियों और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य पर उनके प्रभाव को समझने का प्रयास करता है।
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Author(s):
गावस्कर कौशिक. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
52-57 | 
बस्तर के जनजातीय लोककथाओं में ऐतिहासिकता
Abstract
इतिहास के पुनर्निर्माण में ऐतिहासिक स्रोत के रूप में लोककथाओं का बहुत अधिक महत्व होता है। बस्तर की आदिवासी लोककथाएँ बस्तर के इतिहास और वहाँ की जनजाति संस्कृति को समझने के लिए महत्वपूर्ण स्रोत हैं।लोककथाएं अपने अन्तस् में अतीत की घटनाओं, परम्पराओं, लोकविश्वास, रीति रिवाज और सामाजिक संरचनाओं को समेटे हुए होते है।
जनजातीय लोक कथाओं में उनकी धार्मिक विश्वास, मान्यताओं ,देवी-देवताओं, और अनुष्ठानों के बारे में विशद जानकारी निहित होती हैं, जो उनके आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। लोक या मिथ कथाएँ पूरी तरह सत्य नहीं होती है, किंतु वे सत्यता के बहुत निकट जरुर होते हैं। कई बार सत्य घटनाओ में रूपक एवम कल्पना के सहारे लोककथा गढ़ दी जाती है ,जो पीढी दर पीढ़ी व्यापक स्तर में फैल जाती है। जनजातीय लोककथाओं का अध्ययन ऐतिहासिक स्रोत के रूप में कर उनके विश्लेषण से काल के गर्भ में छुपी इतिहास तक पहुंचने का प्रयास किया सकता है।
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Author(s):
मुकेश कुमार. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
58-68 | 
आधुनिक कुमाउँनी कविताएँ : चिंतन के विविध आयाम
Abstract
विद्वानों का मानना है कि कुमाउँनी बोली में कविताएँ 18वीं शताब्दी से लिखी जानी प्रारम्भ हुई। कुमाउँनी कवियों ने अपनी कविताओं में प्रत्येक प्रकार के चिंतन को दर्शाया है। उन्होंने पलायन, महंगाई, बेरोजगारी, नारियों की स्थिति, पर्यावरण आदि की समस्या को अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है। पुराने समय में लोग आपस में मिलकर काम किया करते थे अब ऐसी स्थिति नहीं है। त्यौहारों के समय लोगों में पूर्व जैसा उल्लास देखने को नहीं मिलता है। जब से पहाड़ों में पलायन बढ़ा है यहाँ के लोगों के साथ-साथ पर्यावरण की दूर्दशा हो गई है। पुरुष शराब की लत के कारण अपना सारा धनधान्य और जीवन बर्बाद कर रहे हैं। कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से यहाँ के लोगों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है तथा बालिकाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित किया है।
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Author(s):
आकांक्षा राय, प्रो० प्रेमशंकर तिवारी. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
69-74 | 
विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ कृत ‘माँ’ उपन्यास में चित्रित वेश्या-जीवन
Abstract
विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' प्रेमचंद युग के प्रमुख कथाकार हैं । अपने उपन्यासों में 'कौशिक' ने तत्युगीन समाज में व्याप्त स्त्री-विषयक समस्याओं का विस्तृत वर्णन किया है । वेश्यावृत्ति की समस्या उन्हीं समस्याओं में से एक है । ' माँ' उपन्यास में वेश्याओं के आडम्बरपूर्ण जीवन तथा वेश्यावृत्ति के दुष्परिणामों को दिखाकर 'कौशिक' ने पुरुष -समाज को सचेत करने का स्तुत्य प्रयास किया है । 'माँ' उपन्यास में 'कौशिक' द्वारा चित्रित वेश्या -जीवन की विशिष्टता यह है कि उन्होंने न केवल वेश्याओं के आडम्बरपूर्ण जीवन का वर्णन किया है बल्कि वेश्याओं को एक साधारण स्त्री समझते हुए उनके मनोभावों को शब्द देने का भी प्रयास किया है । 'कौशिक' की मान्यता है कि कोई भी स्त्री स्वेच्छा से पतित नहीं होती वरन् उसके ऐसा करने के पीछे बहुत से कारण होते हैं ।  'कौशिक' वेश्या को हीन दृष्टि से नहीं देखते वरन् उस कर्म को हीन दृष्टि से देखते हैं, जो एक वेश्या को परिस्थितियों से विवश होकर करना पड़ता है । यही कारण है कि भाव के धरातल पर 'कौशिक' एक साधारण स्त्री व एक वेश्या में कोई अंतर नहीं रखते । एक वेश्या के मनोभावों का भी वह उतनी ही सूक्ष्मता से वर्णन करते हैं, जितनी सूक्ष्मता से एक साधारण स्त्री के मनोभावों का ।
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Author(s):
डा. अनिल कुमार. 
Country: 
Research Area:
शिक्षा शास्त्र 
Page No:
75-81 | 
जैन दर्शन में शिक्षा की संकल्पना
Abstract
सारांश
जैन दर्शन का प्रादुर्भाव अति प्राचीन है। वेद और उसके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के विरुद्ध तथा कर्मकाण्डों के विरुद्ध सामाजिक परिस्थितियों के फलस्वरूप इसका विकास हुआ। ब्राह्मण व्यवस्था से असंतोष के कारण आसानी से इस धर्म को लोगों ने स्वीकार कर लिया। जैन धर्म में चौबीस तीर्थकरों के द्वारा समय-समय पर जो त्याग तपस्या की बातें की गईं उन्होंने तत्कालीन समाज को ज्यादा प्रभावित किया। जैन दर्शन ने वैभव साम्राज्य को त्यागकर सुख की तलाश में भिक्षुक जीवन धारण कर विश्व शान्ति का उपदेश दिया और हिंसाग्रस्त समाज को बताया कि जीवन क्या है। परोपकार की भावना से मनुष्य को निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है। ऊँच-नीच की जो भावना समाज में व्याप्त थी उसका विरोध किया गया तथा जैन शिक्षा दर्शन द्वारा संसार को मुक्ति के मार्ग का उपदेश दिया गया।
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Author(s):
बेबी शर्मा, प्रो. आलोक मिश्रा. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
82-88 | 
बाल साहित्य का वर्तमान परिदृश्य और डॉ. नागेश पाण्डेय ‘संजय’ का योगदान: एक साक्षात्कार-आधारित अध्ययन
Abstract
बाल साहित्य बच्चों की संवेदनाओं, कल्पनाशक्ति और बौद्धिक विकास का महत्वपूर्ण माध्यम है। यह केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि नैतिक मूल्यों, सामाजिक जिम्मेदारी और सांस्कृतिक समझ का भी वाहक है। वर्तमान युग में तकनीकी प्रगति, वैश्विक दृष्टिकोण और सामाजिक परिवर्तनों ने बाल साहित्य के स्वरूप और विषयों को प्रभावित किया है। समकालीन बाल साहित्य में शिक्षा, मनोरंजन, विज्ञान, पर्यावरण और नैतिकता जैसे तत्व बच्चों को बहुआयामी दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।
इस शोध का उद्देश्य समकालीन बाल साहित्य के परिदृश्य का विश्लेषण करना और डॉ. नागेश पाण्डेय ‘संजय’ के साहित्यिक योगदान को उजागर करना है। साक्षात्कार के माध्यम से उनके लेखन की रचनात्मक दृष्टि, भाषा और शैली, बालगीत एवं बालनाट्य में प्रयोग, तथा सामाजिक और नैतिक प्रभाव सामने आए। उनका साहित्य बच्चों में जिज्ञासा, सीखने की प्रवृत्ति, नैतिक मूल्य और सामाजिक जिम्मेदारी विकसित करता है।
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Author(s):
रेशमा देवी. 
Country: 
Research Area:
समाजशास्त्र 
Page No:
89-94 | 
ग्रामीण विकास में महिलाएं: कृषि, लघु उद्योग और सामाजिक परिवर्तन
Abstract
भारतवर्ष ग्रामीण पृष्ठभूमि वाला देश है| यहाँ की आधे से अधिक आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है।इन ग्रामीण क्षेत्रों  की आधी आबादी महिला हैं|जो कि भारत के विकास हेतु आवश्यक है| ग्रामीण विकास और ग्रामीण विकास में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना |ग्रामीण विकास की परिधि में शिक्षा, संस्कृति, कला ,कौशल ,चिकित्सा, सामुदायिक विकास, कृषि ,सामाजिक सुधार ,पशुपालन, उद्योग धंधे ,रोजगार का विस्तार, पेयजल ,विद्युत की व्यवस्था, संचार और परिवहन की व्यवस्था का विस्तार आदि महत्वपूर्ण है|ग्रामीण महिलाएं घर के अंदर और बाहर कई सामाजिक और आर्थिक भूमिकाएं निभाती हैं ,किंतु उनके इस योगदान को समाज में उचित स्थान और मूल्य नहीं मिल पाता तथा ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षण और विकास कार्यक्रमो  का उचित लाभ नहीं मिल पाता है| यह शोध पत्र ग्रामीण विकास और परिवर्तन में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी को समझने का प्रयास करता है| महिलाएं ग्रामीण विकास में प्राचीन काल से योगदान देती आई है| ग्रामीण विकास की रीढ़ की हड्डी कृषि, पशुपालन, लघु और कुटीर उद्योग है| इन कार्यों में महिलाओं की भागीदारी  अतुलनीय है|कृषि, पशुपालन में महिलाएं पुरुषों के बराबर कार्य करती आई है| लघु और कुटीर उद्योग तो मुख्यतः हस्तशिल्प पर आधारित होते हैं जिनमें महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान है |
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Author(s):
बबिता कुमावत. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
95-99 | 
भक्तिकाल में रामस्नेही संप्रदाय
Abstract
रामस्नेही संप्रदाय स्वामी रामचरण जी द्वारा स्थापित एक महत्वपूर्ण संप्रदाय है, इन्होंने सामाजिक कुरीतियों व आडंबरों का विरोध किया, यह संप्रदाय निर्गुण राम की भक्ति पर जोर देता है। निर्गुण राम का अर्थ है वह राम जो लौकिक गुणों और भक्ति से परे हो। इस संप्रदाय की चार मुख्य शाखाएं हैं – शाहपुरा, रेण, खेड़ापा और सिंहथल। इस संप्रदाय ने विभिन्न धर्मों में समन्वय स्थापित किया, ये किसी प्रकार की जाति पाँति में विश्वास नहीं करते हैं मानवीय मूल्यों से संपन्न यह धर्म रामस्नेही संप्रदाय कहलाया इन संतों ने अपनी वाणी को लोक भाषा के माध्यम से जनता तक पहुंचाया। शाहपुरा शाखा के प्रवर्तक स्वामी रामचरण जी महाराज थे, उन्होंने कठोर साधना की थी और राम शब्द को ही उन्होंने हिंदू मुस्लिम समन्वय की भावना का प्रतीक बताया उन्होंने कहा था की गृहस्थी व्यक्ति भी बिना किसी प्रकार का कपट मन में रखे साधना कर सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। जब समाज अन्याय, भ्रष्टाचार, बेईमानी इनकी तरफ बढ़ रहा है तब रामस्नेही संप्रदाय के संतों के विचार ही बाहर निकाल सकते हैं।
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Author(s):
डॉ. मणिकान्त कुमार. 
Country: 
Research Area:
संगीत 
Page No:
100-104 | 
संगीत की लोक विधाओं में रसत्त्व का स्थान
Abstract
प्रस्तुत शोध पत्र में संगीत कला के उद्भव, स्वरूप तथा विकास की विवेचना की गई है। प्राचीनकाल में 64 कलाओं में संगीत को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। कालान्तर में ललितकलाओं को चल एवं अचल दो भागों में विभाजित किया गया, जिनमें संगीत को चल कला के अंतर्गत रखा गया क्योंकि इसकी प्रस्तुति बिना विशेष उपकरणों के सहज रूप से संभव है। भारतीय संगीत परंपरा मुख्यतः दो रूपों मार्गी एवं देसी में विकसित हुई। मार्गी संगीत धार्मिक एवं आध्यात्मिक साधना से जुड़ा हुआ था, जबकि देसी संगीत जनजीवन एवं मनोरंजन का अंग बना। लोकसंगीत स्थानिक भाषा, रीति-रिवाज, त्यौहार, व्यवसाय एवं भौगोलिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर विकसित हुआ और आम जनमानस की भावनाओं का सहज अभिव्यक्ति माध्यम बना। इसमें रसाभिव्यक्ति अत्यंत स्वाभाविक होती है, जैसे श्रृंगार, करुण, हास्य आदि रस। असम का बिहू, गुजरात का गरबा तथा अन्य प्रांतीय लोकनृत्य-गीत इसके जीवंत उदाहरण हैं। निष्कर्षतः लोकसंगीत अपनी सरलता, सहजता एवं नैसर्गिकता के कारण आम जनता के जीवन का अभिन्न अंग है तथा सौंदर्य एवं भावाभिव्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
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Author(s):
डॉ. प्रियंका कुमारी. 
Country: 
Research Area:
संगीत 
Page No:
105-108 | 
बिहार की संगीत परंपराः एक अवलोकन
Abstract
भारतीय संगीत कला आदि काल से भारत की समस्त कलाओं में एक उच्च स्थान प्राप्त करते आ रही है। संगीत, जिसमें गायन, वादन, एवं नृत्य तीनों का समावेश होता है। किसी भी क्षेत्र के सांस्कृतिक जीवन की पहचान में संगीत का महत्व सभी संस्कृतियांे में निर्णायक रहा है । यह एक ओर मनोरंजन का साधन है, तो दूसरी ओर सृजनशील अभिव्यक्तियों का माध्यम है। बिहार में संगीत का स्थान महत्वपूर्ण है । महाभारत काल, रामायण काल, बौद्ध और जैन काल से लेकर वर्तमान समय तक संगीत के कई उतार चढ़ाव देखते हैं। मगध (वर्तमान बिहार) में प्राचीन समय से संगीत का केन्द्र विन्दु रहा है। नालन्दा विश्वविद्यालय, विक्रमशीला विश्वविद्यालय, उदन्तपुरी विश्वविद्यालय में संगीत के स्वतंत्र संकाय हुआ करता था। बुद्ध के समय से राजगीर, वैशाली, गया, पाटलीपुत्र जैसे नगरांे में गायक, गायिकाओं और नर्तकियों एवं गणिकाओं की उपस्थिति के साक्ष्य मिलते हैं। बिहार में सूफी संतों के माध्यम से संगीत की प्रगति हुई, जबकि वैष्णव धर्म आंदोलन के माध्यम से नृत्य और संगीत दोनों का विकास हुआ। वर्तमान समय में गायन, वादन, नृत्य एवं लोक संगीत की परंपरा कायम है।
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Author(s):
पुरुषोत्तम प्रसाद. 
Country: 
Research Area:
राजनीति विज्ञान 
Page No:
109-112 | 
औद्यौगिकरण और नगरीयकरण की अपार वृद्धि का सामाजिक पर्यावरण पर प्रभाव
Abstract
यह शोध पत्र आधुनिक विकास प्रक्रियाओं से उत्पन्न जटिल समस्याओं का सम्यक् विश्लेषण प्रस्तुत करता है। शोध में स्पष्ट किया गया है कि तीव्र औद्योगीकरण और नगरों के विस्तार ने जहाँ एक ओर सामाजिक व आर्थिक प्रगति को गति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन तथा प्राकृतिक असंतुलन जैसी गंभीर चुनौतियों को जन्म दिया है। उद्योगों से निकलने वाले विषैले धुएँ, रासायनिक अवशिष्ट और निरंतर बढ़ते शहरी जनसंख्या दबाव ने वायु, जल और भूमि को प्रदूषित कर दिया है, जिसके कारण असमय वर्षा, बाढ़, सूखा, भूकम्प तथा वैश्विक ऊष्मीकरण जैसी समस्याएँ तीव्र रूप से उभर रही हैं। नगरीयकरण के प्रत्यक्ष प्रभाव खाद्य उत्पादन में कमी, भूमि की उर्वरता में गिरावट और महँगाई वृद्धि के रूप में सामने आए हैं। इससे सामाजिक असमानता और आर्थिक असुरक्षा भी बढ़ी है। इस संदर्भ में पर्यावरण शिक्षा को आवश्यक बताया गया है ताकि समाज को पर्यावरणीय संकटों के प्रति जागरूक कर सतत् विकास की दिशा में अग्रसर किया जा सके। शोध पत्र में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति एवं कठोर कानूनों द्वारा ही औद्योगिक और नगरीय विस्तार पर प्रभावी अंकुश लगाया जा सकता है। यदि समय रहते प्रभावी कदम न उठाए गए तो यह स्थिति मानव सभ्यता के अस्तित्व पर गंभीर संकट उत्पन्न कर सकती है। औद्योगीकरण और नगरीयकरण की अनियंत्रित वृद्धि सामाजिक पर्यावरण के लिए अभिशाप सिद्ध हो रही है। अतः मानव और प्रकृति के बीच संतुलन बनाए रखने हेतु सतत विकास ही एकमात्र सार्थक विकल्प है।
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Author(s):
कु. रेशमा. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
113-121 | 
कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल के काव्य में पर्यावरणीय चेतना
Abstract
काव्य का उद्देश्य जीवन में आनंद प्रदान करना माना गया है, फिर भी काव्य में युगबोध युगचेतना के भीतर पर्यावरण के संदर्भ भी खड़े होते हैं और इसमें कवि कविता में एक नवीन और सामयिक दृष्टि की अभिव्यंजना करते हंै भले ही पर्यावरण शब्द आधुनिकता को ध्वनित करता है किंतु वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर हमारे पूर्वजों का प्रकृति व पर्यावरण से अनुराग और गहन सम्बन्धों की झलक प्राप्त होती है। प्रकृति के विभिन्न रूपों को हर युग के कवियों ने अपने साहित्य में चित्रित किया है।
आज पर्यावरणविद् विश्व को बचाने के लिए प्रयत्नशील हैं और इस देश के नागरिक ही नहीं अपितु साधु संन्यासियों का समुदाय भी पृथ्वी को सुरक्षा प्रदान करने के लिए कटिबद्ध है। उत्तराखंड का चिपको आन्दोलन, पाणी राखो आंदोलन, नदी बचाओ आंदोलन भी इस बहस का हिस्सा है। पर्यावरणविद्ों ने हिमालय और गंगा इन दो पर अपनी दृष्टि केन्द्रित की है। हिमालय को महाकवि कालिदास ने विराट रूप में देखा। हिमालय का कालिदास ने जिस सूक्ष्म व रखमयी काव्य रूप में वर्णन किया, उससे संस्कृत साहित्य ही नहीं भारतीय साहित्य व विश्व साहित्य भी सम्पन्न हुआ है। कालिदास विरचित सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में ऐसे विरचित स्चनाकार सहस्त्रों वर्षों में एक ही बार होते हैं कालिदास की हिमालयी चेतना की झलक 19वीं सदी के द्वितीय दशक के अंतिम वर्षों में मन्दाकिनी घाटी में जन्मे कवि चन्द्रकुँवर बत्र्वाल ने इस चेतना को सम्पन्न किया। आधुनिक छायावादी कवि चन्द्रकुँवर बत्र्वाल अपनी डायरी मैं भी लिखते हंै कि ‘‘मेरी कविताओं का आधार हिमालय होगा, हिमालय के दृश्य में अपनी कविताओं में चित्रित करूँगा, मेरे पथ प्रदर्शक कालिदास हंै मुझे किसी का भय नहीं’’, सभी छायावादी कवियों ने इस दृष्टि से हिमालय और गंगा का चित्रण किया है यद्यपि उस समय पर्यावरणीय नारा तो नहीं था किंतु प्रकृति के वैभव में सृष्टि के रहस्यों का अनुभव करते हुए इन कवियों ने प्राकृतिक सत्यों का भी उद्घोष किया, गंगा एवं हिमालय दोनों को अपने साहित्य का विषय बनाया है। कवि चन्द्रकुँवर बत्र्वाल भी इसी काव्यात्मक मुहिम का हिस्सा हैं।
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Author(s):
विकास कुमार, डॉ. सुभाष चन्द्र. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
122-129 | 
भारतीय ज्ञान परंपरा और विक्रमादित्यकथा उपन्यास
Abstract
प्रस्तुत शोधपत्र में राधावल्लभ त्रिपाठी प्रणीत विक्रमादित्यकथा उपन्यास तथा अन्य हिंदी के महत्वपूर्ण ग्रंथों से भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रमुख तत्वों को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है।
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Author(s):
अमित राज. 
Country: 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
130-134 | 
आधुनिक हिंदी कविता में निहित नियतिवाद का स्वरूप
Abstract
प्रस्तुत लेख मौलिक है। इस लेख में आधुनिक हिंदी कविता तथा नियतिवाद के प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है। नियतिवादी सिद्धांत पुरानी दर्शन आजीवक दर्शन से सम्बंध रखता है। इस परम्परा को दलित आलोचक डॉ धर्मवीर मध्यकाल में कबीर तथा रैदास के सन्दर्भ में दिखा आए हैं तथा उसी को आधार बना कर इस लेख में इसे आधुनिक कविता के संदर्भ में दिखाया गया है।
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Author(s):
डॉ. विजय प्रसाद रतूड़ी. 
Country: 
Research Area:
आयुर्वेद 
Page No:
135-141 | 
ज्योतिष एवं आयुर्वेद की दृष्टी से उदर रोग
Abstract
ज्योतिषशास्त्र एवं आयुर्वेद की दृष्टि से उदर रोग
डॉ. विजय प्रसाद रतूड़ी
.                                                                                                                   उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय  हल्द्वानी
ज्योतिषशास्त्र एवं आयुर्वेद दोनों का सम्बन्ध अतिप्राचीन  रहा हैं| शास्त्र में सूक्ति भी है "ज्योतिवैद्यौनिरन्तरम् " दोनों शास्त्र इस बात पर सहमत रहते हैं कि मनुष्य अपने पूर्वार्जित अशुभ कर्मों के प्रभाववश रोगी बन जाता हैं । ज्योतिषशास्त्र में जन्मकुण्डली के माध्यम से पूर्व में ही रोगों का ज्ञान किया जा सकता है, कि कब और कौन सी व्याधि होगी इस सम्बंध  में कुछ बुद्धिमान लोगों की यह धारणा है कि मानव आहार विहार के कारण सुनिश्चित समय पर आहार-विहार का न होना जिससे अनेक रोग उत्पन्न होते रहते हैं। यदि मानव इन पर समुचित नियन्त्रण रखें तो वह स्वस्थ एवं दीर्घजीवी बना रहता है। परन्तु ज्यौतिषशास्त्र की मान्यता इससे कुछ भिन्न है। ज्योतिषशास्त्र अनियमित आहार-विहार को ही रोगोत्पत्ति का कारण नहीं मानता हैं । क्योंकि अधिकतम यह बात प्रत्यक्ष रूप से देखने में आती है। कि  कुछ लोग नितान्त एवं अनियमित जीवन व्यतीत करते हुए भी उनका स्वास्थ्य सही रहता है। कुछ लोग निरन्तर जीवन के अभ्यासी होते हैं। वे समय के द्वारा अपने आहार-विहार का ध्यान रखते हैं। उसके बाद भी उनका स्वास्थ्य अस्वस्थ रहता है। और वे रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। यदि आहार विहार को ही रोगोत्पत्ति का कारण माना जाय तो आनुवांशिक रोग महामारी रोग एक अन्य रोगों की उत्पत्ति के कारण सही प्रकार से रोगोत्पत्ति की  व्याख्या नहीं किया जा सकता है। यही एक कारण है कि आयुर्वेदशास्त्र ने रोगोत्पत्ति के कारणों का विचार करने के बाद कभी कभी पूर्वार्जित कर्मो के प्रभाव से कभी कभी दोषों के प्रकोप से और कभी कभी इन दोनों के प्रभाव से शारीरिक  शारीरिकरोग (वात, कफ, पित्त) एक मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं।  ज्योतिषशास्त्र की यह मान्यता रही है कि प्रत्येक छोटा और बड़ा रोग पूर्वार्जित  कर्मफल के रूप में रोग उत्पन्न होता है। ज्योतिषशास्त्र में जन्मसमय प्रश्नकाल एवं गोचरकाल में जो प्रतिकूल ग्रह है। उनके प्रभाववश रोगों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसी मान्यता के अनुसार  किसी भी जातक की जन्मकुण्डली के आधार पर वर्षों पूर्व ही यह घोषित किया किया गया कि जातक को कब और कौन सा रोग होगा। कर्मों के प्रभाववश उत्पन्न होने वाले रोगों का विचार ज्योतिष ग्रन्थों में प्रतिपादित ग्रहयोगों के आधार पर किया जाता हैl सूर्यादिग्रह मनुष्य के शरीर के अंग धातु, एवं दोषों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जब ग्रह अनिष्ट स्थान में स्थित होने के कारण अनिष्टप्रभावकारी हो जाता हैं, तब वह शरीर के अंग धातु एवं दोष आदि में विकार या रोग के बारे में सूचना देता रहता हैं। परन्तु जब वही ग्रह इष्ट स्थान आदि में स्थित होने के कारण इष्ट प्रभावयुक्त होता है, तब वह शरीर के अंग-धातु दोष आदि में आरोग्यता की सूचना देता हैं ।
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Author(s):
डॉ.  भावनाकुमारी  एस.  गोहिल. 
Country:
India 
Research Area:
हिन्दी साहित्य 
Page No:
142-148 | 
श्रीमती मेहरुन्निसा परवेज़ की कहानियों में स्त्री विमर्श
Abstract
अनीतिमूलक  सामाजिब  प्रतिबंध  के  विरुद्ध  एक  इन्सान  की  स्वतंत्रता  का,  उसकी  अस्मिता  का  स्वर  है  स्त्री  विमर्श  ।  इस  आधी  दुनिया  को  समझना  वस्तुतः  इतिहास  के  भीतर  इतिहास  तलाशना  ही  है।  अभी  जिसे  इतिहास  समझा  जाता  है  वह  वास्तव  में  अर्ध  सत्य  है  ।  जब  हर  पहलू  को  इमानदारी  से  टटोला  जाएगा,  तब  जो  इतिहास  निर्मित  होगा  वह  सही  अर्थ  में  पूर्ण  इतिहास  माना  जाएगा  । बीसवीं  सदी  के  उत्तरार्ध  में  शुरू  हुए  नारी  आंदोलन  ने  सभी  भाषा  साहित्य  को  विशेषकर  हिन्दी  साहित्य  को  काफी  प्रभावित  किया  है।  हम  यह  नहीं  भूलते  कि  स्त्री  विमर्श  यूरोप  और  अमेरिका  की  देन  है  पर  भारत  में  स्त्री  विमर्श  का  अपना  एक  स्वतंत्र  इतिहास  रहा  है  जिसे  अपने  देश  की  मिट्टी  से  जुड़ी  समस्या  को  ध्यान  में  रखकर  अपने  लिए  पश्चिम  से  अलग  मौलिक  सिद्धांतो  की  आवश्यकता  है  और  उन  सिद्धांतो  को  ध्यान  में  रखकर  कार्य  किया  जाएगा  तब  आगे  जाकर  एक  दिन  ज़रूर  स्त्री  की  भूमिका  बदलेगी।  भूमिका  में  बदलाव  के  लिए  पुरुष  का  सकारात्मक  हस्तक्षेप  होना  ज़रूरी  है।  नारी  समाज  का  ही  हिस्सा  है  और  समाज  को  मज़बूत  बनाने  की  प्रक्रिया  में  स्त्री  का  सशक्तिकरण  होना  सहज  ही  शामिल  हो  जाता  है।  आज  बाज़ारवाद  की  सबसे  बड़ी  शिकार  स्त्री  ही  हुई  है।  दलित  उद्धार  के  लिए  कई  सफल  प्रयास  हो  चुके  हैं  पर  वास्तव  में  स्त्री  से  अधिक  दलित  कोई  नहीं  है।  प्रत्येक  देश  की  परिस्थिति  के  अनुरूप  ही  वहाँ  के  समाज  का  निर्माण  होता  है।  यह  बात  बिलकुल  सत्य  है  पर  इससे  जुड़ा  एक  भद्दा  सत्य  यह  भी  है  कि  हर  समाज  में  स्त्री  की  स्थिति  एक  जैसी  ही  है।  इस  बात  का  ठीक  ठीक  अनुमान  हम  लेखकों  के  द्वारा  लिखे  गए  साहित्य  को  पढ़कर  लगा  सकते  हैं।  आज  सम्पूर्ण  विश्वमें  स्त्री  विमर्श  साहित्य  का  एक  दृढ  स्वर  बनकर  उभर  रहा  है।  भिन्न  भिन्न  दृष्टिकोण  से  स्त्री  के  सम्बन्ध  में  बहस  छिड़ी  हुई  है।  ऐसा  क्यों  हो  रहा  है  ?  इस  कारण  के  पीछे  छीपी  है  स्त्री  की  अंतरकथा।  यह  एक  ऐसी  यात्रा  है  जो  अपने  यात्री  को  पीड़ा  पहुँचाए  बिना  उसे  अपने  गंतव्य  तक  पहुँचाने  का  दायित्व  सम्भाल  रही  है।